राहुल गांधी की गूंजहीन “भारत जोड़ो न्याय यात्रा” आम चुनाव में कोई गुल खिला सकती है क्या ?

इस ख़बर को शेयर करें

The coming elections are a testing time for democracy :कुछ ही समय में आम चुनाव की रणभेरी बजने वाली है। तमाम राजनीतिक दलों ने अपनी – अपनी सियासी चालें चलनी शुरू कर दी हैं। नरेन्द्र मोदी तो बीजेपी की जीत को लेकर सातवें आसमान तक उछलते हुए चुनाव परिणाम से ज्यादा अपने तीसरे टर्म की प्राथमिकताओं की बात कर रहे हैं। वहीं जब सारी राजनीतिक पार्टियां अपने उम्मीदवार तय करने के लिए एक – एक संसदीय सीट की बारीक रणनीति बना रहे हैं तब कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी बिना किसी बड़ी अनुगूंज वाली भारत जोड़ो न्याय यात्रा कर रहे हैं। आखिर इस यात्रा में जुटे रहने का मकसद क्या है ? इसके पीछे मौजूद राजनीतिक समझ को लेकर सवाल उठाया जाना लाजिमी है। जहां एक ओर कुछ लोग इसे राजनीतिक समझ की कमी कह रहे हैं तो दूसरी ओर इसे इस तरह से भी देखा जा रहा है कि जब पूरा विपक्ष रक्षात्मक है, हर विपक्षी नेता अपना गढ़, अपनी साख बचाने में जुटा हुआ है तब भी कोई तो है जो आम आदमी के सरोकार से जुड़े जरूरी सवाल उठा कर सरकार को कठघरे में खड़ा करने की राष्ट्रीय राजनीति कर रहा है। पिछले साल यात्रा की शुरुआत कन्याकुमारी से की गई थी तो इस बार यात्रा की शुरुआत लम्बे समय से सामुदायिक हिंसा से जूझ रहे मणिपुर से की गई है।*

इंडिया पोल खोल को आर्थिक सहायता प्रदान करने हेतु इस QR कोड को किसी भी UPI ऐप्प से स्कैन करें। अथवा "Donate Now" पर टच/क्लिक करें। 

Click Here >> Donate Now

*कांग्रेस के भीतर बगावत और असंतोष का होना कोई हैरान करने वाली बात नहीं है। मध्य प्रदेश में सरकार का गिरना, पंजाब – हरियाणा में आशातीत सफलता का नहीं मिलना, ताजा – ताजा मामला हिमाचल प्रदेश का है जहां राज्यसभा चुनाव में पार्टी के आधा दर्जन विधायकों ने क्रास वोटिंग की है । कहा जा सकता है कि कांग्रेस विद्रोह की ज्वाला के भड़कने का इंतजार करती दिखाई देती है। इसके पीछे की सबसे बड़ी चार वजह समझ में आती है। संवादहीनता – सही फीडबैक का ना मिलना – फैसलों में देरी – एक से ज्यादा पावर सेंटर।*

*कार्यकर्ताओं से लेकर विधायकों, सांसदों, नेताओं की सहज पहुंच केन्द्रीय नेतृत्व तक नहीं है। कहा जा सकता है कि कांग्रेस का केन्द्रीय नेतृत्व अपने जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं और नेताओं से कट सा चुका है। सिंधिया से लेकर देवड़ा तक ने कांग्रेस को अलबिदा करते हुए यही तो कहा था कि हफ्तों कोशिश करने के बाद भी हाईकमान से दीदार का समय नहीं मिला। पार्टी का शीर्ष नेतृत्व पिछले दो दशक से कुछ खास तरह के लोगों से घिरा हुआ है जो जमीनी हकीकत को उस तक पहुंचने ही नहीं देता। यह काकस अपने निजी हितों और स्वार्थों के आधार पर सूचनाओं को आगे बढ़ाता है। पार्टी के भीतर बनाया गया जरूरत से ज्यादा लोकतांत्रिक माहौल पार्टी के लिए खूबी बनने के बजाय बोझ बनता जा रहा है जिससे फैसले लेने में देरी होती है। देखने में आया है कि पिछले एक दशक में कांग्रेस हिन्दी पट्टी के कई राज्यों में अपनी सरकार बनाने और बनाये रखने में चूक गई है। यहां पर आपसी गुटबाजी और खींचातानी पार्टी हितों के ऊपर भारी पड़ती दिखी है। मध्य प्रदेश में कमलनाथ, दिग्विजय सिंह बनाम ज्योतिरादित्य सिंधिया, राजस्थान में अशोक गहलोत बनाम सचिन पायलट, छत्तीसगढ़ में भूपेष बघेल बनाम टीएस सिंहदेव, पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह बनाम नवजोत सिंह सिद्धू फिर चरणजीत सिंह चन्नी बनाम नवजोत सिंह सिध्दू, हरियाणा में भी पहले भूपेंद्र सिंह हुड्डा बनाम अशोक तंवर उसके बाद भूपेंद्र सिंह हुड्डा बनाम कुमारी शैलजा और रणदीप सिंह सुरजेवाला की खींचातानी ने पार्टी की जीत की संभावनाओं पर पानी फेरा है । गांधी परिवार के तीन सदस्य सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के साथ ही अब मल्लिकार्जुन खरगे के रूप में एक और पावर सेंटर उदित हुआ है जो फैसलों में देरी की वजह बनता जा रहा है। असंतुष्टों, बागियों को किसी एक पावर सेंटर का वरदहस्त उनके खिलाफ होने वाली कार्रवाई को रोकता है। यही कारण है कि नवजोत सिंह सिध्दू, सचिन पायलट जैसे नेताओं पर उनके तमाम बागी तेवरों के बावजूद पार्टी कठोर निर्णय को टालती रही क्योंकि इनके सिर पर प्रियंका गांधी का हाथ होना बताया जाता है ।*

इंडिया पोल खोल के WhatsApp Channel को फॉलो करने के लिए इस WhatsApp आइकन पर टच/Click करें।

Google News पर इंडिया पोल खोल को Follow करने के लिए इस GoogleNews आइकन पर टच/Click करें।

*सत्तापक्ष भले ही 400 पार का पहाड़ा पढ़ रहा हो लेकिन आक्रमकता बता रही है कि जमीनी हकीकत को लेकर सरकारी खेमा कांफीडेंट नहीं है। सरकार 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देने को अपनी उपलब्धि बता रही है (जबकि यह राष्ट्रीय शर्म की होनी चाहिए) लेकिन हकीकत यह है कि काम – धंधे के नाम पर लोगों के हाथों से तोते उड़े हुए हैं। नौजवानों के बीच बेरोजगारी को लेकर निराशा पसरी हुई है। मध्यम वर्ग की नई जमात का साफ्टवेयर इंजीनियरिंग से अच्छी पगार का भरोसा भी सेक्टर में फैली सुस्ती से टूट रहा है।*

*राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार भारत का आधा हिस्सा याने दक्षिण के पांच राज्यों (तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल) के साथ महाराष्ट्र, राजस्थान, पंजाब, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, ओड़िशा, पश्चिम बंगाल में विपक्ष का पलड़ा भारी है या फिर बराबरी का है परन्तु बाकी राज्यों में पालिटिकल मोमेंटम सत्तापक्ष के साथ है। इसी भरोसे सत्तापार्टी दूसरे राज्यों में विपक्ष को मात देने के तानेबाने बुन रही है। मगर यदि विपक्ष अपने साझा राजनीतिक अभियान में आम आदमी से सरोकार रखने वाले जमीनी मुद्दे उभारने में सफल होता है तो ऐन चुनाव के वक्त वोटों के ध्रुवीकरण को बदलने में सफल भी हो सकता है। मगर इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि सत्तापक्ष विपक्षी नेताओं को चैन की सांस नहीं लेने देगा। जिसका भरपूर मौका भी देते हैं कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियों से आने वाले दूसरी – तीसरी कतार के असुरक्षित, महत्वाकांक्षी नेता। विपक्ष के इस भुरभुरेपन को लेकर पार्टियों पर आत्म केन्द्रित परिवारवादी राजनीति का आरोप लगाया जाता है लेकिन किसी सांसद, विधायक या पूर्व मंत्री को अपना आगे का रास्ता अवरुद्ध दिखेगा तो फिर स्वाभाविक है कि भले ही उसकी अपनी पार्टी की आइडियालाजी कितनी भी अच्छी हो लंबे इंतजार के बाद पहला बुलौआ मिलते ही वह दूसरे पाले में चला जाएगा। इसके लिए कुछ हद तक भारतीय राजनीति में व्याप्त वैचारिक अवसरवाद भी जिम्मेदार है। देखा जाए तो धर्म निरपेक्षता तथा कमजोर तबकों के साथ खड़े रहना मुख्यधारा के ज्यादातर नेताओं के लिए जुबानी जमाखर्च तक ही सीमित रहा है। ठीक भी है जिसने अपनी पूरी जिन्दगी राजनीति से कुछ पाने में ही गुजारी हो तो उसके लिए खोना, कष्ट सहना उसकी कल्पना से परे ही होगा। वह सत्ताधारी राजनीति के सामने 10 साल टिक गया यही बहुत बड़ी बात है। आगे वह टिकिट लेकर भी पाला बदल सकता है।*

*भारत जैसे देश में लोकतंत्र के लिए यह परीक्षा की घड़ी है। विपक्ष की अनुपस्थिति में देशवासी सम्मोहन जैसे हालात में जी रहे हैं। एक समय ऐसा भी था जब भारत की सांख्यिकी के गुर सीखने के लिए दूसरे देशों के विशेषज्ञ आया करते थे। कहा जाता है कि 1955 के आसपास चीनी प्रधान मंत्री चाओ एनलाई ने ऐक्शनेबल स्टैटिस्टिक्स जुटाने के तरीके समझने के लिए कोलकाता में एक हफ्ता बिताया था लेकिन आज हालात यह है कि भारत का कोई भी सरकारी आंकड़ा भरोसेमंद नहीं है। नीति आयोग को उसके गठन के समय योजना आयोग से इस मामले में अलग बताया गया था कि गरीबी के आंकड़े जुटाना और गरीबी रेखा तय करना उसका काम नहीं है पर भारत में गरीबी लगभग खत्म हो चुकी है यह ज्ञान दुनिया को उसी से मिला है।*

अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
_स्वतंत्र पत्रकार_

 

इंडिया पोल खोल के YouTube Channel को Subscribe करने के लिए इस YouTube आइकन पर टच/Click करें।


इस ख़बर को शेयर करें